फुर्सत के दिन/fursat ke din
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बचपन से ही लगीं मुझको एक बंधन सी
वो मेरे घर की ऊँची दीवारे ,
ऊँचा कूदता ,फिर भी न देख पाता उनके पार
कोसता उन्हें क्यों बनाई गईं
वो मेरे घर की ऊँची दीवारे ,
पढ़ा लिखा बढ़ा उन्ही को कोसता
तो कभी बनाने वालों को ,क्यों बनाई
वो मेरे घर की ऊँची दीवारे ,
बंध गया एक रोज़ उन्ही दीवारों में ब्याह के बंधन
बसाने को नई दुनिया ,गृहस्थी ,अब देने लगीं है सुकून मुझे भी
वो मेरे घर की ऊँची दीवारे ,
समय बदला एक और करवट ,जब से जन्म लेके आई मेरी बेटी
अब तो लगने लगी है बहुत छोटी मुझे
वो मेरे घर की ऊँची दीवारे ,……………….
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