फुर्सत के दिन/fursat ke din
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वो तनहा बैठी ज़मीन पर
खीचती है कुछ लकीरें ,मिटा देती है
शायद वो समझती है मिट जाएँगी
इन लकीरों को मिटाने से
उसकी दुःख तख्लिफें
पर नहीं
ये वहम है उस का
वो फिर वही कोशिश करती है
नहीं थकती
न धूप ही उसे विचलित कर सकी
न तेज हवाएं , न आंधियां
वो मगन है अपने आप में
नहीं भटकती
शायद उसका
भूत ,भविष्य ,वर्तमान
इन्ही लकीरों में सिमट आया है
ओर वो इन तीनो को
मिटा देना चाहती है
पर लकीरें है कि
इतनी गहरी हो चुकी है
उसकी अपनी कोशिशो से
अब नहीं मिटती
नहीं मिटती
गहरी लकीरें !!!!
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